कामदायिनी_षोडशी_साधन

#कामदायिनी_षोडशी_साधन ।।
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"पीत्वा पीत्वा पुनर्पित्वा पतित भूतले"इतना अधिक पियो को धरती पर गिर पड़ो।

षोडशी पूजा में साधक भगवतीरूपी कन्या या स्त्री को कारण वारि यानी मद्य अर्पण करते है और स्वयं भी प्रसाद  रूप में इतना अधिक मद्य पिते है की उन्हें अपना होश नहीं रहता ,इतना अधिक पियो को धरती पर गिर पड़ो।मद्य पिने से मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है।किसी भी नशीली वस्तु के सेवन से शरीर के तंतुओ पे एक प्रकार की तीव्रता आ जाती है और मद्य में ये प्रभाव है  की वह  शरिर और मन की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों को उभार देती है।क्रोधी व्यक्ति के क्रोध को,कामी व्यक्ति के काम को,इसी प्रकार उस व्यक्ति के शरीर व मन में बUसने वाले गुणों और दुर्गुणों को उभार देती है।और अपने ही शरिर  की सुधा नहीं रहती।
स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के समय जो चरम आनंद की स्थिति होती है उसे विश्यानंद की संज्ञा दी गई है,स्त्री सम्बन्ध से जो विषयानंद प्राप्त होता है वह परमात्मा के आत्मा के मिलने के परमानंद से कुछ ही कम है।विषयानंद को परमानंद का सहोदर माना जाता है।
बहुत से सम्प्रदाय सही मार्ग दर्शन नहीं कर पाने के कारण बदनाम हो चुके है,क्योकि इस मार्ग  में भटकने का खतरा बना होता है।सत्य यह है की "शिव,राम,कृष्ण या अन्य कोई भी" पर ध्यान लगाना  या एक अव्यक्त पर प्रेम भावना को केंद्रित करना अपेक्षा कृत बहुत कठिन कार्य है,अत:उसे पहले एक सशरीर  व्यक्ति पे केंद्रित कर  अंत में उसेअपने आराध्य  पर प्रेषितकर देना चाहिए।किन्त इसमें खतरा यह रहता है की साधक अपनी ऊर्जा का नियंत्रण नहीं कर पाता और उसे सशरीर धारिसे ही प्रेम हो जाता है और वह भौतिक प्रेम में लिप्त हो कर अपने आराध्य को भूल जाता है।
संकलित
।।षोडशी वैदिक विश्लेषण ।।

षोडशी माहेश्वरी शक्ति की सबसे मनोहर श्रीविग्रहवाली सिद्ध देवी हैं। महाविद्याओं में इनका चौथा स्थान है। सोलह अक्षरों के मंत्रवाली इन देवी की अंगकांति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है। इनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। ये शांतमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। इनके चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिए सदा सर्वदा तत्पर भगवती का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है। जो इनका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता है। वस्तुतः इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त मंत्र तंत्र इनकी आराधना करते हैं। वेद भी इनका वर्णन करने में असमर्थ हैं। भक्तों को ये प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, अभीष्ट तो सीमित अर्थवाच्य है।
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प्रशान्त हिरण्यगर्भ ही शिव हैं और उन्हीं की शक्ति षोडशी हैं। तन्त्रशास्त्रों में षोडशी देवी को पंचवक्त्र अर्थात पांच मुखों वाली बताया गया है। चारों दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें पंचवक्त्रा कहा जाता है। देवी के पांचों मुख तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव अघोर और ईशान शिव के पांचों रूपों के प्रतीक हैं। पांचों दिशाओं के रंग क्रमशः हरित, रक्त, धूम्र, नील और पीत होने से ये मुख भी उन्हीं रंगों के हैं। देवी के दस हाथों में क्रमशः अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घण्टा, नाग और अग्नि हैं। इनमें षोडश कलाएं पूर्ण रूप से विकसित हैं, अतएव ये षोडशी कहलाती हैं।

षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। इनके ललिता, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापंचदशी आदि अनेक नाम हैं। इन्हें आद्याशक्ति माना जाता है। अन्य विद्याएं भोग या मोक्ष में से एक ही देती हैं। ये अपने उपासक को भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करती हैं। इनके स्थूल, सूक्ष्म, पर तथा तुरीय चार रूप हैं।

एक बार पराम्बा पार्वतीजी ने भगवान शिव से पूछा- भगवन! आपके द्वारा प्रकाशित तन्त्रशास्त्र की साधना से जीवन के आधि व्याधि, शोक संताप, दीनता हीनता तो दूर हो जायेंगे, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति तो इससे नहीं होगी। कृपा करके इस दुख से निवृत्ति और मोक्षपद की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये। परम कल्याणमयी पराम्बा के अनुरोध पर भगवान शंकर ने षोडशी श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया। भगवान शंकराचार्य ने भी श्रीविद्या के रूप में इन्हीं षोडशी देवी की उपासना की थी। इसीलिये आज भी शांकरपीठों में भगवती षोडशी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना चली आ रही है। भगवान शंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि अमृत के समुद्र में एक मणि का द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं, उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रम्हमय सिंहासन है, जिसमें पंचकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं। सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं। भगवती के प्रभाव से इन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। भैरवयामल तथा शक्तिलहरी में इनकी उपासना का विस्तृत परिचय मिलता है। दुर्वासा इनके परमाराधक थे। इनकी उपासना श्रीचक्र में होती है।

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