शास्त्रों के अनुसार कर्मों की योनियाँ

शास्त्रों के अनुसार कर्मों की योनियाँ ।

प्रश्न :- कितने प्रकार की और कितनी योनियां हैं?

उत्तर :- तीन प्रकार की योनियाँ हैं-

१.कर्म योनि।
२.भोग योनि।
३.उभय योनि।

कुल योनियाँ चौरासी लाख कही जाती है।  _स्वर्गवासी पं. लेखराम जी_ ने अनेक महात्माओं की साक्षी देकर यह लिखा है।चौरासी लाख योनियों की गणना इस प्रकार कही गयी है।

जल-जन्तु ७ लाख,पक्षी १० लाख,कीड़े-मकोड़े ११ लाख,पशु २० लाख,मनुष्य ४ लाख और जड़ (अचल,स्थावर) ३२ लाख योनियाँ हैं।(देखो गीता रहस्य ले. तिलककृत पृष्ठ १५४)

श्रेष्ठतम योनि:-
〰〰〰〰
प्रश्न :- कर्म योनि और भोग योनि तो मैंने भी सुनी हैं।कर्म योनि तो मनुष्यों की है और भोग योनि पशुओं की।परन्तु यह उभय योनि तो आज ही नई सुनी है।इसका क्या आशय है?

उत्तर :- जो तुमने सुन रखा है,वह भी यथार्थ नहीं। वास्तव में भोग योनि वही है जिसमें केवल भोग ही भोगा जाता है और कर्म नहीं किया जाता। वह बंदी के समान है,उसे ही पशु योनि कहते हैं।उभय योनि वह है जिसमें पिछले कर्मों का फल भी भोगा जाता है और आगे के लिए कर्म भी किया जाता है।वह योनि मनुष्य योनि कहलाती है। फिर यह कर्म योनि भी दो प्रकार की है। एक तो वह जो आदि सृष्टि में बिना माता-पिता के मुक्ति से लौटे हुए जीव सृष्टि उत्पन्न करने मात्र के लिए पैदा होते हैं। उसे अमैथुनी कहते हैं,दूसरे वह जो माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं। वह मैथुनी कहलाते हैं। उनका जन्म केवल मोक्ष प्राप्ति के साधन और मुक्ति पाने योग्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही होता है। ऐसे कर्म योनि वाले जीवों ने जन्म-जन्मान्तरों में तप किया होता है। वह उसके प्रभाव से अपनी केवल थोड़ी सी कसर पूरी करने के लिए जन्म लेते हैं। उन पर भगवान की दया होती है।वह कर्म योग,ज्ञान योग अथवा भक्ति योग द्वारा किसी फल की इच्छा किये बिना निष्काम-भावना से कर्म करते हैं,इसलिए वह मुक्त हो जाते हैं।जैसे आदि सृष्टि में अग्नि,वायु,अंगिरा आदि ऋषि बिना माता-पिता के हुए और वर्तमान काल में महाराजा जनक,महात्मा बुद्ध,भगवान शंकर,महर्षि दयानन्द कपिल मुनि आदि हो चुके हैं।

योनि-चक्र:-
〰〰〰
प्रश्न :- मनुष्य किन-किन कर्मों के कारण पशु योनि में पहुंच जाता है? और क्या यह प्रसिद्ध लोकोक्ति सत्य नहीं कि-
मनुष्य जन्म दुर्लभ है मिले न बारम्बार।
तरुवर से पत्ता झड़े,फिर न लागे डार ।।

अर्थात् - जब मनुष्य एक बार पशु-योनि में चला जाता है तो फिर उसको मनुष्य जन्म नहीं मिलता।

उत्तर:- यह महात्माओं का अपना-अपना अनुभव है।उनका यह विचार है कि प्रभु बड़े दयालु हैं।अपने अमृत पुत्रों (जीवों) को उनके कर्मानुसार ,केवल उनके सुधारने के लिए जन्म देते हैं।वह उन्हें अपनी ओर बार-बार उठने और आने का अवसर देते हैं।जैसे मान लो,कोई मनुष्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ,परन्तु उसने वहाँ शुभ कर्म नहीं किये।प्रभु को भूल गया,कभी याद नहीं किया तो भगवान् अगले जन्म में उसे गिराकर क्षत्रिय कुल में जन्म देंगे,कि वह फिर सँभलकर अपनी उन्नति कर सके।यदि यहाँ भी उसने अपनी योग्यता को सिद्ध नहीं किया तो तीसरा जन्म उसे वैश्य के घर में देंगे।यदि वह वहाँ भी न उठा और भगवान को भूला रहा,तो उसे शूद्र योनि में डालेंगे।यदि वह वहाँ भी न संभला और भगवान् ने देखा कि यह मूढ़मति भूलकर भी मेरा नाम नहीं लेता,उपकार नहीं मानता और शुभकर्मों की और रुचि नहीं करता और नित्य बुरे कर्मों में ही लीन रहता है,तो उसे पशु-पक्षी की योनि में डाल देंगे।कर्मानुसार यथोचित योनियां भुगताकर फिर कभी किसी समय नये सिरे से मनुष्य योनि प्रदान करेंगे,जिससे वह पहले समय किये हुए अशुभ कर्मों के प्रभाव से मुक्त और पवित्र होकर,यदि चाहे तो फिर अपना उद्धार कर ले और धीरे-धीरे आवागमन से छुटकारा पाकर परम पद प्राप्त कर सके। परन्तु यह भयानक कथा साधारण मनुष्यों के लिए है कि वह मनुष्य योनि का मूल्य समझें और इसको अपनावे।पापों से बचते रहें और परमात्मा को न भूलें।

अब मैं तुम्हें वेद-शास्त्रों के आधार पर इसका मर्म बतलाता हूं।भगवान् मनु ने भी यही लिखा है कि प्रभु वास्तव में जीव को उसके सुधार तथा उपकार के लिए बार-बार जन्म देते हैं।परन्तु ऐसा नहीं करते कि एक ही बार उसे मनुष्य जातियों की उत्तम योनियां देकर फिर नीच पशु आदि योनियों में भेज दें वरन् उनके भले-बुरे कर्मानुसार उनका योनि-क्रम साथ ही साथ बदलता रहता है।

देखिए:-

शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्दैवतं भवम् ।
कर्मजा गतयो नृणाम् उत्तमाधममध्यमाः।।
तस्येह त्रिविधस्यापि अधिष्ठानस्य देहिनः।
दशलक्षणयुक्तस्य,मनो विद्यात् प्रवर्तकम् ।।
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् ।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।
असंबद्धप्रलापश्च,वांग्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।
अदत्तानामुपादानं,हिंसा चैवा विधानतः ।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।।
मानसं मन सैवायम् उपभुक्ते शुभाशुभम् ।
वाचा वाचाकृतं कर्म कायेनैव च कायिकम् ।।
शरीरजैः कर्मदौषैर्याति स्थावरतां नरः ।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ।।

अर्थात्:- शारीरिक कर्म-दोष से मनुष्य स्थावरता (पेड़ आदि योनियों)को,वाणी के कर्म-दोष से पशु-पक्षी आदि योनियों को और मानसिक पापों के कारण चाण्डाल आदि की नीच मनुष्य की योनियों को प्राप्त होता है।

शुभाशुभ फल देने वाले कर्मों का उत्पत्ति स्थान मन,वचन और शरीर है।इन कर्मों से ही उत्तम,मध्यम और अधम गति प्राप्त होती है।

इस देह सम्बन्धी त्रिविध (तीन प्रकार के उत्तम,मध्यम और अधम) तथा दस लक्षणों से युक्त तीन(मानसिक,वाचिक और दैहिक) अधिष्ठानों के आश्रित कर्मों का प्रवर्तक मन ही है।अर्थात् मन ही अच्छे और बुरे कर्मों का कारण है।

अन्याय से दूसरों का धन छीनने की बात सोचते रहना,दूसरों का अनिष्ट(बुरा सोचना)चिंतन,मन में मिथ्या भयनिवेश अर्थात् यह सोचना कि यह शरीर ही आत्मा है और परलोक कोई नहीं,यह तीन प्रकार के मानस कर्म हैं जो अशुभ फल देने वाले होते हैं।

कठोर बोलना,झूठ बोलना,दूसरे के दोषों को कहते रहना और निरभिप्राय बात करना,ये चार वाणी के पाप हैं,अशुभ फल के दाता हैं।

दूसरों की वस्तुओं को बलपूर्वक ले लेना,अवैध हिंसा और परस्त्री गमन यह तीन प्रकार के शारीरिक पाप-कर्म हैं जिनका फल कभी शुभ नहीं हो सकता।

इससे आगे महर्षि मनु कहते हैं:-

यद्यदाचरति धर्मः प्रायशोऽधर्ममल्पशः ।
तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गसुखमुपाश्नुते ।।
यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते धर्ममल्पशः ।
तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः प्राप्नोति यातनाः ।।
यामीस्ता यातनाः प्राप्य स जीवो वीतकल्मषः ।
तान्येव पंचभूतानि पुनरप्येति भागशः ।।
 (मनु० १२ ,१० ,२२)*

अर्थात्-
〰〰
जब मनुष्य के पाप अधिक और पुण्य कम होते हैं,तब उसका जीव पशु आदि नीच योनियों में जाता है।जब धर्म अधिक और पाप वा अधर्म कम होता है,तब उसे विद्वानों का शरीर मिलता है और जब पाप तथा पुण्य बराबर-बराबर होते हैं,तब साधारण मनुष्य जन्म पाता है।

प्रश्न :- तो फिर पशु से मनुष्य कैसे बनता है?

उत्तर:- जब पाप अधिक होने का फल पशु आदि योनि में भोग लिया तो पाप और पुण्य समतुल्य रह जाने से फिर मनुष्य शरीर मिल जाता है और पुण्य के फल भोग से साधारण मनुष्य शरीर प्राप्त करता है।
[साभार: "कर्म भोग-चक्र" पुस्तक से]
Whats app +16475102650 and +919717032324

Comments

Popular posts from this blog

vashikaran mohini and solution to all problems

BAGLAMUKHI VASHIKARAN MOHINI MANTRA

Baglamukhi jayanti sadhna